भारत की जेलों में 70 प्रतिशत से अधिक कैदी अपराध सिद्ध न होने पर भी कैद में: सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रम नाथ ने की कानूनी सहायता में सुधार की मांग। 

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रम नाथ ने भारत की आपराधिक न्याय व्यवस्था की गंभीर कमियों पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि देश की जेलों में बंद कैदियों में से 70 प्रतिशत

Nov 10, 2025 - 13:08
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भारत की जेलों में 70 प्रतिशत से अधिक कैदी अपराध सिद्ध न होने पर भी कैद में: सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रम नाथ ने की कानूनी सहायता में सुधार की मांग। 
भारत की जेलों में 70 प्रतिशत से अधिक कैदी अपराध सिद्ध न होने पर भी कैद में: सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रम नाथ ने की कानूनी सहायता में सुधार की मांग। 

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रम नाथ ने भारत की आपराधिक न्याय व्यवस्था की गंभीर कमियों पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि देश की जेलों में बंद कैदियों में से 70 प्रतिशत से अधिक वे हैं, जिनका अपराध अब तक अदालत में सिद्ध नहीं हुआ है। फिर भी ये लोग वर्षों जेल में सड़ रहे हैं। यह टिप्पणी न केवल न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति को उजागर करती है, बल्कि गरीब और असहाय लोगों के अधिकारों के हनन को भी दर्शाती है। जस्टिस नाथ ने कानूनी सहायता प्रणाली में तत्काल सुधार की मांग की है, ताकि निर्दोष लोग जेल की सलाखों के पीछे न बिताएं। उनकी यह टिप्पणी हैदराबाद के नेशनल अकादमी ऑफ लीगल स्टडीज एंड रिसर्च (एनएएलएसएआर) यूनिवर्सिटी में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान कही गई। यहां पुणे और नागपुर में फेयर ट्रायल प्रोग्राम की रिपोर्ट जारी की गई थी।

जस्टिस विक्रम नाथ ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि निर्दोषता का सिद्धांत, जो भारतीय संविधान का मूल आधार है, जेलों में बंद अंडरट्रायल कैदियों के लिए महज किताबी बात बनकर रह गया है। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि कई कैदी ऐसे हैं, जिन्होंने जेल में बिताए समय से अधिक की सजा नहीं होनी चाहिए थी। कुछ मामलों में अपराध सिद्ध होने पर भी सस्पेंडेड सजा मिल जाती, लेकिन मुकदमे की देरी के कारण वे जेल में ही पड़े रहते हैं। बेलेबल अपराधों के मामलों में भी गरीबी के कारण जमानत न मिलने से लोग कैद में रह जाते हैं। जस्टिस नाथ ने कहा कि यह व्यवस्था की नाकामी है, न कि कानून की। वे सुप्रीम कोर्ट के उस 2015 के फैसले का हवाला देते हुए बोले, जिसमें अंडरट्रायल रिव्यू कमिटी का गठन किया गया था। इसके आंकड़ों के अनुसार, देशभर में कुल 5 लाख 30 हजार 333 कैदी हैं, जिनमें 74 प्रतिशत अंडरट्रायल हैं। यह आंकड़ा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के हालिया आंकड़ों से भी मेल खाता है।

कार्यक्रम में जारी फेयर ट्रायल प्रोग्राम रिपोर्ट ने और भी चौंकाने वाले तथ्य सामने रखे। रिपोर्ट के अनुसार, 74 प्रतिशत अंडरट्रायल कैदियों में से केवल 7.91 प्रतिशत ने ही कानूनी सहायता का लाभ उठाया है। बाकी लोग या तो इसकी जानकारी ही नहीं रखते या फिर अतीत के बुरे अनुभवों के कारण विश्वास नहीं करते। जस्टिस नाथ ने कहा कि कानूनी सहायता अभी साइलो में काम करती है। अदालतें, जेलें और लीगल सर्विसेज अथॉरिटी अलग-अलग काम करती हैं, जिससे गरीब आरोपी भटक जाते हैं। उन्होंने एक एकीकृत प्रणाली की मांग की, जिसमें सभी संस्थाएं एक जिम्मेदारी की श्रृंखला से जुड़ी हों। इससे पहली सुनवाई से अंतिम फैसले तक प्रभावी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सकेगा। जस्टिस नाथ ने जोर देकर कहा कि कानूनी सहायता दान नहीं, बल्कि संविधान में निहित विश्वास का कार्य है।

भारत की जेल व्यवस्था लंबे समय से इस समस्या से जूझ रही है। एनसीआरबी के 2023 के आंकड़ों के अनुसार, देश में कुल 5 लाख 54 हजार कैदी हैं, जिनमें 76 प्रतिशत अंडरट्रायल हैं। यह संख्या वर्ष दर वर्ष बढ़ रही है। अधिकांश अंडरट्रायल गरीब, युवा और अशिक्षित हैं। 70 प्रतिशत से अधिक अनपढ़ या अर्धशिक्षित हैं, जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 40 वर्ष पहले ही इसे न्यायिक व्यवस्था पर कलंक बताया था। तब कहा गया था कि मुकदमे शुरू होने से पहले ही लंबी कैद अनुचित है। लेकिन आज भी स्थिति वही है। कई राज्यों में जेलों की क्षमता से दोगुने कैदी भरे हैं। दिल्ली, पंजाब जैसे विकसित राज्यों में भी अंडरट्रायल की संख्या चिंताजनक है।

जस्टिस नाथ ने महिलाओं और कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान देने की बात कही। उन्होंने कहा कि महिलाएं, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं वाले कैदी और हाशिए पर रहने वाले लोग न्याय व्यवस्था में अधिक कष्ट झेलते हैं। इनके लिए दयालु दृष्टिकोण जरूरी है। कानूनी सहायता, स्वास्थ्य सुविधाएं, सुरक्षित स्थान और संस्थागत संवेदनशीलता से ही समानता सुनिश्चित होगी। कार्यक्रम में स्क्वायर सर्कल क्लिनिक ने पुणे और नागपुर के फेयर ट्रायल प्रोग्राम की रिपोर्ट पेश की। यह क्लिनिक एनएएलएसएआर का आपराधिक न्याय पहल है। रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि कानून की पढ़ाई में बदलाव लाया जाए। कानून कॉलेजों के लीगल एड क्लिनिक को जीवंत बनाया जाए, न कि औपचारिकता। जस्टिस नाथ ने कहा कि युवा वकीलों का पहला अनुभव किताबों से नहीं, बल्कि अंडरट्रायल से मिलने से होना चाहिए। उनके डर और आशा को समझने से पेशा नया आकार लेगा।

यह मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय बन चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में अंडरट्रायल रिव्यू कमिटी के माध्यम से जमानत और मुकदमे की तेजी पर जोर दिया है। 2022 में बिल्किस बानो मामले में जस्टिस नाथ की बेंच ने गुजरात सरकार को नोटिस जारी किया था। उन्होंने रेमिशन पॉलिसी पर सवाल उठाए थे। इसी तरह अन्य मामलों में निर्दोषों की रिहाई सुनिश्चित की। लेकिन व्यवस्था में सुधार की जरूरत बनी हुई है। कानून आयोग की 78वीं रिपोर्ट में भी अंडरट्रायल की परिभाषा और समस्याओं पर चर्चा की गई है। इसमें कहा गया कि जांच के दौरान न्यायिक हिरासत में रहने वाले भी अंडरट्रायल हैं। ब्रिटिश काल की आपराधिक न्याय व्यवस्था आजादी के 78 वर्ष बाद भी गरीबी और असमानता को बढ़ावा दे रही है।

जस्टिस विक्रम नाथ का करियर प्रेरणादायक है। 1962 में जन्मे नाथ लखनऊ यूनिवर्सिटी से साइंस और लॉ की डिग्री धारक हैं। 1987 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। 2014 में जज बने, फिर गुजरात हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस रहे। 2021 से सुप्रीम कोर्ट में हैं। उन्होंने विविध क्षेत्रों में फैसले दिए हैं। जैसे, अजय कुमार शुक्ला बनाम अरविंद राय मामले में वरिष्ठता सूची को असंवैधानिक ठहराया। बाल वन चंद्रा ठाकुर बनाम मास्टर भोलू में मानसिक क्षमता पर फैसला दिया। इन फैसलों से न्याय की पहुंच बढ़ी है।

इस टिप्पणी के बाद विशेषज्ञों ने सुधारों पर जोर दिया। लीगल एड सर्विसेज अथॉरिटी को मजबूत करने, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से मुकदमे तेज करने और जमानत प्रक्रिया सरल बनाने की सिफारिशें आई हैं। सरकार ने डिजिटल इंडिया के तहत ई-कोर्ट प्रोजेक्ट शुरू किया है, लेकिन जेलों में इंटरनेट और ट्रेनिंग की कमी है। एनजीओ जैसे कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव अंडरट्रायल रिहाई अभियान चला रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में एक पीआईएल में निर्देश दिए कि हर जिले में अंडरट्रायल मॉनिटरिंग कमिटी बने।

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