Varanasi: दाह संस्कार के दौरान गंगा तट पर मिला दुर्लभ एकमुखी शिवलिंग, बीएचयू प्रोफेसर की खोज से गुर्जर-प्रतिहार काल की झलक।
वाराणसी शहर, जो हिंदू धर्म का एक प्रमुख केंद्र है, एक बार फिर अपनी प्राचीन विरासत की गहराई दिखा रहा है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के जीन विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डॉक्टर ज्ञानेश्वर चौबे
वाराणसी शहर, जो हिंदू धर्म का एक प्रमुख केंद्र है, एक बार फिर अपनी प्राचीन विरासत की गहराई दिखा रहा है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के जीन विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डॉक्टर ज्ञानेश्वर चौबे को उनके पैतृक गांव चौबेपुर के पास गंगा नदी के किनारे एक दुर्लभ एकमुखी शिवलिंग मिला है। यह खोज शहर से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर की ओर हुई, जहां एक ग्रामीण के खेत में दाह संस्कार के दौरान यह प्राचीन कलाकृति सामने आई। बलुआ पत्थर से बनी यह मूर्ति नौवीं से दसवीं शताब्दी ईस्वी की मानी जा रही है और गुर्जर-प्रतिहार काल से जुड़ी बताई जा रही है। पुरातत्व विशेषज्ञों का कहना है कि यह खोज वाराणसी क्षेत्र की मध्यकालीन शैव परंपरा, गंगा तटीय सभ्यता और प्रतिहार कालीन कला शैली को समझने के लिए महत्वपूर्ण साक्ष्य है। प्रोफेसर चौबे ने इस स्थल का वैज्ञानिक सर्वेक्षण और संरक्षण का प्रस्ताव दिया है ताकि इसकी पूरी जानकारी मिल सके।
यह घटना 20 अक्टूबर 2025 की है। प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे, जो बीएचयू में जेनेटिक्स के विशेषज्ञ हैं और नेशनल ज्योग्राफिक एक्सप्लोरर भी हैं, अपने गांव चौबेपुर पहुंचे थे। वहां उनके ग्रामीण साथियों के साथ एक अंतिम संस्कार में शामिल होने गए। दाह संस्कार के दौरान खेत में काम करने वाले एक किसान को मिट्टी हटाते समय कुछ कठोर चीज महसूस हुई। जब उसने गहराई से खुदाई की, तो एक सुंदर एकमुखी शिवलिंग सामने आ गया। शिवलिंग का आकार अंडाकार है, ऊपरी भाग गोलाकार और नीचे का भाग थोड़ा चौड़ा। इसकी ऊंचाई करीब 30 सेंटीमीटर और व्यास 20 सेंटीमीटर के आसपास है। सतह पर हल्के निशान हैं जो प्राचीन शैली के संकेत देते हैं। प्रोफेसर चौबे, जो पुरातत्व में भी रुचि रखते हैं, ने तुरंत इसे देखा और अपनी प्रारंभिक जांच की। उन्होंने स्थानीय लोगों को इसे न छूने की सलाह दी और फोटो खींचकर विशेषज्ञों को भेजा।
चौबेपुर गांव गंगा के तट पर स्थित है, जो वाराणसी के उत्तरी छोर पर आता है। यह इलाका प्राचीन काल से ही धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व का रहा है। गंगा के किनारे दाह संस्कार की परंपरा यहां सदियों पुरानी है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार, गंगा स्नान और अंतिम संस्कार से आत्मा को मोक्ष मिलता है। इस गांव में छोटे-छोटे घाट हैं, जहां स्थानीय लोग दाह संस्कार करते हैं। प्रोफेसर चौबे ने बताया कि वे गांव लौटे थे तो एक पुराने मित्र के संस्कार में गए। वहां खेत में काम कर रहे किसान ने चिलम पीते हुए मजाक में कहा कि मिट्टी से कुछ पुराना सामान निकला है। जाकर देखा तो शिवलिंग था। उन्होंने तुरंत बीएचयू के पुरातत्व विभाग को सूचना दी। विभाग के प्रमुख डॉक्टर सचिन तिवारी और डॉक्टर राकेश तिवारी ने प्रारंभिक जांच की।
विशेषज्ञों की टीम ने शिवलिंग का अवलोकन किया। डॉक्टर सचिन तिवारी ने कहा कि यह बलुआ पत्थर की बनी मूर्ति है, जो गंगा घाटी की स्थानीय शैली को दर्शाती है। एकमुखी होने का मतलब है कि इसमें शिव का एक ही मुखाकार रूप उभरा है, जो शैव सिद्धांत में विशेष महत्व रखता है। प्रतिहार काल की कला में ऐसे शिवलिंग आम थे, जहां सादगी और कलात्मकता का मिश्रण होता था। डॉक्टर राकेश तिवारी ने बताया कि नौवीं से दसवीं शताब्दी में गुर्जर-प्रतिहार वंश का प्रभाव उत्तर भारत में था। वे शिव भक्त थे और कन्नौज से वाराणसी तक मंदिर बनवाते थे। यह शिवलिंग संभवतः किसी छोटे मंदिर या पूजा स्थल का हिस्सा रहा होगा, जो बाढ़ या अन्य कारणों से दब गया। कार्बन डेटिंग से इसकी उम्र की पुष्टि होगी।
गुर्जर-प्रतिहार काल भारत के मध्यकाल का स्वर्णिम युग माना जाता है। आठवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक चला यह वंश कला, वास्तुकला और धर्म के संरक्षक थे। वाराणसी में कई प्रतिहार कालीन अवशेष मिले हैं, जैसे काशी विश्वनाथ मंदिर के आसपास के खंडहर। इस काल में शैववाद चरम पर था। राजा Mihir Bhoj जैसे शासकों ने शिव मंदिर बनवाए। यह शिवलिंग उसी परंपरा का प्रमाण है। पुरातत्व सर्वेक्षण ऑफ इंडिया के अनुसार, गंगा तट पर ऐसे अवशेष अक्सर मिलते हैं क्योंकि नदी का कटाव पुरानी संरचनाओं को उजागर कर देता है। 2020 में ही बीएचयू की टीम को बभनियाव गांव में 4000 वर्ष पुराना शिवलिंग मिला था, जो गुप्त काल का था। वह खोज भी गंगा तट से जुड़ी थी।
प्रोफेसर चौबे की यह खोज संयोगिक है, लेकिन महत्वपूर्ण। वे जेनेटिक्स के क्षेत्र में काम करते हैं, लेकिन बचपन से वाराणसी की पुरानी चीजों में रुचि रखते हैं। उनके फेसबुक पेज पर वे अक्सर स्थानीय इतिहास की बातें शेयर करते हैं। इस खोज के बाद स्थानीय लोग उत्साहित हैं। गांव वालों ने कहा कि यह शिवलिंग उनके क्षेत्र की पवित्रता का प्रतीक है। एक बुजुर्ग ने बताया कि पहले यहां एक छोटा सा मंदिर था, जो अब गायब हो चुका है। खोज की खबर फैलते ही पुरातत्व प्रेमी और धार्मिक संगठन पहुंचने लगे। प्रशासन ने क्षेत्र को अस्थायी रूप से संरक्षित घोषित कर दिया है।
यह खोज वाराणसी की समृद्ध विरासत को नई रोशनी देती है। शहर को दुनिया की सबसे पुरानी बसी हुई जगह माना जाता है। यहां 84 घाट हैं, जिनमें मणिकर्णिका और हरीश्चंद्र जैसे दाह संस्कार के घाट प्रसिद्ध हैं। गंगा के किनारे खुदाई से अक्सर पुरानी मूर्तियां मिलती हैं। 2022 में ज्ञानवापी सर्वे में भी शिवलिंग जैसी संरचना मिली थी, जिस पर बहस हुई। लेकिन यह खोज शांतिपूर्ण है और इतिहासकारों के लिए वरदान। बीएचयू के इतिहास विभाग की प्रोफेसर अनुराधा सिंह कहती हैं कि गंगा तट प्राचीन सभ्यता का खजाना है। प्रतिहार काल में यहां व्यापार और धर्म का केंद्र था।
भविष्य में इस स्थल पर बड़े पैमाने पर खुदाई प्रस्तावित है। प्रोफेसर चौबे ने कहा कि वे एएसआई से संपर्क करेंगे। अगर यह साइट संरक्षित हो गई, तो पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। स्थानीय किसान खुश हैं क्योंकि इससे उनका क्षेत्र प्रसिद्ध होगा। लेकिन वे चिंतित भी हैं कि बाढ़ से यह फिर न दब जाए। गंगा का जलस्तर बढ़ने पर तट कटाव आम है। 2024 की बाढ़ में कई पुरानी चीजें बह गई थीं।
यह खोज हमें याद दिलाती है कि इतिहास हमारे आसपास ही छिपा है। दाह संस्कार जैसे दैनिक कार्य में भी प्राचीन रहस्य मिल सकते हैं। वाराणसी, जो शिव की नगरी है, ऐसे अवशेषों से और मजबूत होती है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह शिवलिंग शैव परंपरा की निरंतरता दिखाता है। मध्यकाल में प्रतिहारों ने कला को नई ऊंचाई दी। उनके मंदिरों में बलुआ पत्थर का प्रयोग आम था। यह शिवलिंग उसी शैली का है।
स्थानीय धार्मिक नेता इसे आशीर्वाद मान रहे हैं। एक पंडित ने कहा कि गंगा मां ने इसे प्रकट किया है। पूजा की मांग हो रही है, लेकिन विशेषज्ञों ने इसे सुरक्षित रखने पर जोर दिया। सोशल मीडिया पर तस्वीरें वायरल हो रही हैं। लोग इसे प्रतिहार काल की कृति बता रहे हैं।
वाराणसी में ऐसी खोजें आम हैं। 2015 में राजघाट पर खुदाई से 2500 वर्ष पुराने अवशेष मिले। बीएचयू की टीम सक्रिय है। प्रोफेसर चौबे की यह खोज उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण को दिखाती है। वे कहते हैं कि जेनेटिक्स और पुरातत्व दोनों इतिहास समझने में मदद करते हैं।
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