जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने श्रीनगर में मज़ार-ए-शुहदा की दीवार फांदी: 1931 के शहीदों को दी श्रद्धांजलि।
J&K CM Omar Abdullah: जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने श्रीनगर के पुराने शहर में नक्शबंद साहिब दरगाह के पास स्थित मज़ार-ए-शुहदा (शहीदों का कब्रिस्तान) में....
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने श्रीनगर के पुराने शहर में नक्शबंद साहिब दरगाह के पास स्थित मज़ार-ए-शुहदा (शहीदों का कब्रिस्तान) में 1931 के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक नाटकीय कदम उठाया। प्रशासन द्वारा लगाई गई पाबंदियों और पुलिस की रोकटोक के बावजूद उन्होंने कब्रिस्तान की दीवार फांदकर वहां पहुंचकर फातिहा पढ़ी और फूल चढ़ाए। यह घटना तब सामने आई जब उमर अब्दुल्ला और उनके साथ नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के वरिष्ठ नेता, उपमुख्यमंत्री सुरिंदर चौधरी और अन्य सहयोगी 13 जुलाई 1931 को डोगरा शासन के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान मारे गए 22 कश्मीरियों की याद में श्रद्धांजलि देने गए थे।
- 1931 के शहीदों का ऐतिहासिक महत्व
13 जुलाई 1931 को श्रीनगर के सेंट्रल जेल के बाहर डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह की सेना ने 22 कश्मीरी प्रदर्शनकारियों को गोली मार दी थी। ये प्रदर्शनकारी अब्दुल कादिर नामक एक व्यक्ति की गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध कर रहे थे, जिन्होंने डोगरा शासन के खिलाफ बगावत का आह्वान किया था। यह घटना जम्मू-कश्मीर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ मानी जाती है, क्योंकि इसने डोगरा शासन के खिलाफ व्यापक जनआंदोलन को जन्म दिया। इस घटना ने 1932 में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के गठन का मार्ग प्रशस्त किया, जो बाद में नेशनल कॉन्फ्रेंस के रूप में सामने आया। 1948 में जब जम्मू-कश्मीर भारत के साथ विलय हुआ, तब इन प्रदर्शनकारियों को शहीद का दर्जा दिया गया और 13 जुलाई को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटे जाने के बाद शहीद दिवस को आधिकारिक अवकाश के रूप में हटा दिया गया। इसके बावजूद, कश्मीरी नेताओं और जनता के लिए यह दिन ऐतिहासिक और भावनात्मक महत्व रखता है। मज़ार-ए-शुहदा, जो नक्शबंद साहिब दरगाह के पास ख्वाजा बाजार, नौहट्टा में स्थित है, इन शहीदों की याद में एक पवित्र स्थल है।
13 जुलाई 2025 को शहीद दिवस के अवसर पर श्रीनगर जिला प्रशासन ने मज़ार-ए-शुहदा जाने वाले रास्तों को सील कर दिया था। उमर अब्दुल्ला सहित नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), और अन्य दलों के नेताओं को उनके घरों में नजरबंद कर दिया गया था, ताकि वे कब्रिस्तान न पहुंच सकें। प्रशासन ने कानून और व्यवस्था की स्थिति का हवाला देते हुए किसी भी सभा की अनुमति देने से इनकार कर दिया।
14 जुलाई को उमर अब्दुल्ला ने बिना किसी पूर्व सूचना के मज़ार-ए-शुहदा जाने का फैसला किया। उनके साथ उनके पिता और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला, उपमुख्यमंत्री सुरिंदर चौधरी, और अन्य पार्टी नेता थे। नौहट्टा चौक पर पुलिस ने उनकी गाड़ियों को रोकने की कोशिश की और कब्रिस्तान के मुख्य द्वार को बंद कर दिया। उमर ने बताया कि पुलिस ने उनके साथ धक्का-मुक्की की और नेशनल कॉन्फ्रेंस का झंडा फाड़ने की कोशिश की। इसके बावजूद, उन्होंने हार नहीं मानी और कब्रिस्तान की दीवार फांदकर अंदर पहुंचे। वहां उन्होंने शहीदों की कब्रों पर फूल चढ़ाए, फातिहा पढ़ी, और उनकी बलिदान को याद किया।
उमर ने इस घटना के बाद पत्रकारों से बात करते हुए कहा, "मैंने कोई गैरकानूनी काम नहीं किया। यह शर्मनाक है कि चुने हुए प्रतिनिधियों को शहीदों को श्रद्धांजलि देने से रोका जा रहा है। यह लोकतंत्र है या तानाशाही? हमें अपने शहीदों को याद करने का हक है।" उन्होंने इस घटना को जम्मू-कश्मीर के इतिहास के साथ छेड़छाड़ का प्रयास बताया और इसे जलियांवाला बाग नरसंहार से जोड़ा, यह कहते हुए कि 13 जुलाई 1931 का नरसंहार कश्मीर का जलियांवाला बाग है।
जम्मू-कश्मीर में पुलिस और सुरक्षा बल उपराज्यपाल (एलजी) मनोज सिन्हा के प्रत्यक्ष नियंत्रण में हैं, जबकि चुनी हुई सरकार का कानून और व्यवस्था पर कोई अधिकार नहीं है। उमर अब्दुल्ला ने इसे "गैर-चुने हुए लोगों की तानाशाही" करार दिया और कहा कि यह कश्मीर की जनता की आवाज को दबाने का प्रयास है। उन्होंने बीजेपी नेता अरुण जेटली के एक पुराने बयान का जिक्र करते हुए कहा, "जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र गैर-चुने हुए लोगों का अत्याचार बन गया है।"
श्रीनगर पुलिस ने 13 जुलाई को एक सार्वजनिक नोटिस जारी कर कहा था कि ख्वाजा बाजार, नौहट्टा में किसी भी सभा की अनुमति नहीं दी जाएगी। प्रशासन ने इसे कानून और व्यवस्था की स्थिति से जोड़ा, लेकिन कोई विस्तृत स्पष्टीकरण नहीं दिया। नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रवक्ता इमरान नबी डार ने कहा कि उमर अब्दुल्ला ने कोई कानून नहीं तोड़ा और न ही उस दिन कोई औपचारिक प्रतिबंध आदेश जारी किया गया था।
इस घटना ने जम्मू-कश्मीर और देशभर में व्यापक चर्चा को जन्म दिया। पीडीपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इसकी निंदा की और कहा, "13 जुलाई हमारे शहीदों का दिन है, जिन्होंने अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई। जब आप मज़ार-ए-शुहदा को घेर लेते हैं और लोगों को उनके घरों में बंद कर देते हैं, तो यह बहुत कुछ कहता है।" उन्होंने कहा कि जब तक भारत सरकार कश्मीरी शहीदों को अपने नायकों की तरह स्वीकार नहीं करती, तब तक "दिल की दूरी" खत्म नहीं होगी।
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष मिर्वाइज उमर फारूक ने इस घटना पर तंज कसते हुए कहा, "उमर अब्दुल्ला ने आज उस अत्याचार और लाचारी का स्वाद चखा, जो आम कश्मीरी रोजाना झेलते हैं।" उन्होंने उमर से कश्मीरियों की गरिमा और अधिकारों की रक्षा पर ध्यान देने को कहा।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममाता बनर्जी ने भी इस घटना की निंदा की और इसे लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन बताया। उन्होंने कहा, "शहीदों के कब्रिस्तान में जाने में क्या गलत है? यह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि एक चुने हुए मुख्यमंत्री के साथ हुआ यह व्यवहार शर्मनाक है।"
हालांकि, कुछ दलों ने इस घटना को सियासी नाटक करार दिया। जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष सजाद लोन ने इसे "स्क्रिप्टेड" बताया और कहा कि यह केवल दिखावे के लिए था।
उमर अब्दुल्ला ने स्थानीय समाचार पत्रों पर भी निशाना साधा, जिन्होंने उनके और अन्य नेताओं की नजरबंदी की खबर को कथित तौर पर दबा दिया। उन्होंने एक्स पर लिखा, "स्थानीय अखबारों को देखें, आप कायरों और साहसी लोगों में फर्क देख पाएंगे। शर्म उन लोगों पर जो इस खबर को दबा रहे हैं। मुझे उम्मीद है कि उन्हें मिला लिफाफा इसके लायक था।"
13 जुलाई 1931 की घटना को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। कुछ इसे डोगरा शासन के खिलाफ स्वतंत्रता और गरिमा की लड़ाई मानते हैं, जबकि कुछ इसे इस्लामी दंगाइयों द्वारा हिंदू शासक के खिलाफ विद्रोह के रूप में देखते हैं। एक दृष्टिकोण के अनुसार, अब्दुल कादिर ने डोगरा शासन के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिया था, जिसके बाद प्रदर्शनकारियों ने सेंट्रल जेल पर हमला करने की कोशिश की। डोगरा सेना ने जवाबी कार्रवाई में 21-22 लोगों को मार गिराया। 1948 में नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने इन प्रदर्शनकारियों को शहीद का दर्जा दिया, लेकिन कुछ लोग इसे विवादास्पद मानते हैं।
उमर अब्दुल्ला का मज़ार-ए-शुहदा की दीवार फांदकर शहीदों को श्रद्धांजलि देना न केवल उनकी दृढ़ता को दर्शाता है, बल्कि जम्मू-कश्मीर में चुनी हुई सरकार और उपराज्यपाल प्रशासन के बीच तनाव को भी उजागर करता है। यह घटना कश्मीर के इतिहास और उसकी स्मृतियों को संरक्षित करने की लड़ाई का प्रतीक बन गई है। शहीद दिवस, जो कभी आधिकारिक अवकाश था, अब एक विवादास्पद मुद्दा बन चुका है। उमर ने कहा, "हम अपने शहीदों को कभी नहीं भूलेंगे। अगर 13 जुलाई को नहीं, तो 12 या 14 जुलाई को, हम जरूर आएंगे और उन्हें याद करेंगे।" यह घटना जम्मू-कश्मीर के सियासी और सामाजिक परिदृश्य में लंबे समय तक चर्चा का विषय बनी रहेगी।
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